घर बसाना चाहती हूँ एक तुम्हारे साथ
छोटा सा, दूर उस नदी के पार,
क्यारियों में लाल गुलाब लगायेगे,
उस नीम के पेड़ पर झूला डलवाएगे,
दीवारों पर तुम्हारी मेरी तस्वीरें लगायेगे,
तस्वीरो से झांकती हुई हंसी में खिलखिलाएगे,
चिड़िया मैना के लिए एक छोटी सी मटकी टाँगेगे,
बच्चे जब निकलेगे उनके, उन्हें फुर-फुर उड़ाएँगे,
सर्दियों में धूप सेंकेंगे आँगन में बैठ कर,
दिन ढलेगा जब, तब अन्दर आ जायेगे,
चाय पीयेगे बैठ कर घर की देहलीज पर,
दुनिया को देखेगे बस दूर से ही सहज कर,
बसंत में बागीचे के पेड़ पर फूल जब आयेगे,
गुलदस्ता उनका बना कर कमरे में सजायेगे,
बारिशे जब होगी और हवा चलेगी तेज खूब,
खिड़की दरवाजें बंद कर घर में दुबक जायेगे,
ऐसा नहीं है की डर लगता है तूफाँ से मुझे,
तूफाँ तो देख चुकी हूँ बहोत मैं,
महफूज लगता है पर करीब तुम्हारे,
जितना नहीं लगता किसी भी और किनारे!
एक बार काश तुम कहते,
भले झूँठ ही सही,
पर मेरा दिल तो बहलाते,
की आ जाओगे सब छोड़ कर मेरे लिए,
समेट लोगे मुझे बाहों में अपनी,
उससे ज्यादा कुछ और मुझे चाहिए भी तो नहीं,
यूँ तो मैं लड़ सकती हूँ सबसे,
पर जब बात आती है तुम्हारी,
खुद के ही आगे कमज़ोर पड़ जाती हूँ,
हकीकत के झरोको से सपनो में झांकती हूँ,
तुम्हारे साथ एहसास जो इतने जुडे है,
अलग करती हूँ उन्हें तो वो चीख पड़ते है,
पर तुम चिंता ना करना,
बुझा दूगी उन सपनो के दिए मैं,
दबा दूगी उन एहसासों को माटी तले,
जो परेशां करते है तुम्हे,
और जिन्हें पूरा करने के लिए शायद दूसरा जन्म हमें लेना पड़े!
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