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रुखसत

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जब  भी मैं देखती हूँ खुद को आईने में,

ऐसा क्यूँ लगता है कि कुछ अधूरा है,

क्या है कुछ समझ नहीं आता,

प्रतिबिम्ब भी मेरा कुछ नहीं बतलाता

दूर तुमने किया है,

समझाया भी है बहोत मुझे,

काश तुम समझ पाते,

ऐसे नहीं समझायी जाती ये बातें

रुखसत किया जो जीवन से एक बार,

तो चली तो गयी मैं हमेशा के लिए,

महसूस हुआ पर ऐसे,

कि दिल कदमो तले रख कर कुचला है किसी ने

प्यार करने में  देरी हुई या जल्दबाजी, ये पता नहीं,

तुम नहीं हो मेरे काबिल ये जरूर समझी मैं,

शर्ते लगायी तुमने इतनी कि हैरान थी मेरी तन्हाई भी,

क्या ये शख्स है वही, जिसके लिए हमने घंटो इतनी बातें कि 

जब क्यूँकि लेकिन किन्तु परन्तु हो इतने

नहीं चल पाती दिल कि बात,

जगह ही बचे जहाँ मासूम जज़्बातों कि,  

क्या है औक़ात ऐसी इश्कबाजी कि, 

जाओ तुम, आजाद करती हूँ मैं,

मेरे लिए तुम थे ही नहीं

पूछना चाहती हूँ बस तुमसे एक बार,

दिए क्यों ऐसे एहसास, जो ठन्डे ही सही,

पर अंगारे बन कर दहकते है अब भी अंदर ही!

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1 thought on “रुखसत”

  1. bahut badhiya jazbat dikhaya hai aapne priyankaji achaa likha hai aap ki kavitaye padhi bahut achcha laga bahot time ke baad kuch nayi kavita padhi really like it.aap ka blog chile ke bare mei padha ab mei bhi ye desh dekhane ke liye taiyariya kar raha hu.photsos bahut natural liy hai really fantastic thank you

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